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Wednesday 30 October 2013

कहानी सुनाने का एक नायाब तरीका

पाठ्यपुस्‍तकों में कहानियाँ होती हैं। आमतौर पर उनका उपयोग कक्षा में बहुत सीमित स्‍तर पर होता है। लेकिन यह निर्विवाद रूप से सत्‍य है कि अगर शिक्षक चाहे तो वह किसी भी एक कहानी के माध्‍यम से बच्‍चों के बीच सोचने के बहुत सारे आयाम खोल सकता है। लेकिन कहानी प्रस्‍तुत किस तरह की जाए, यह भी एक सोचने की बात है। कुछ शिक्षक इसके लिए नए तरीके खोजते रहते हैं।

अज़ीम प्रेमजी स्‍कूल, दिनेशपुर, उधमसिंह नगर के शिक्षक साहबुद्दीन अंसारी ने  अपना ऐसा ही एक अनुभव इस वीडियो में साझा किया  ह।




Monday 28 October 2013

Continuous and Comprehensive Evaluation

Continuous evaluation
Modern educational theory has battled with such obsolete practices of examinations for a long time. Its message is simple and clear: namely that children’s learning and development cannot be viewed in terms of a rigidly defined class structure, nor it can be fitted into an annual cycle of evaluation and promotion. The RTE Act represents the legal approval of modern educational thinking when the Act prohibits detention and requires that a child can join the school at any point in the year. The vision underlying the RTE Act is further clarified by the prohibition imposed on Board examination at the end of the elementary stage or before it. This vision is completely consistent with NCF which also recommends that there should be no Board examination at any point in elementary education.

‘Continuous Evaluation’ means that the  teacher’s work should be continuously guided by the child’s response and participation in classroom activities. In other words, evaluation should be seen as a process whereby the teacher learns about the child in order to be able to teach better, and ‘Continuous Evaluation’ becomes a strategy of assessment which is a part and parcel of teaching itself.

Comprehensive evaluation
The term ‘Comprehensive’ implies the capacity to view the child from a holistic perspective, rather than merely in terms of  a learner of different school subjects. A comprehensive evaluation strategy would imply that aspects such as the child’s health, self-image, sensibilities, etc. are also perceived in the context of development and growth. Conventionally these aspects are either neglected in our education system or as we now see in private schools, dealt with by using an arbitrarily devised grading system which conveys the impression that the teacher has judged the child according to a norm. It is the duty of the teacher to make every possible effort, through interaction and engagement, to observe and understand the child’s own nature. It is also important that the teacher does not judge the child’s nature. Rather, what is required is that the teacher notices the inherent potential of the child as a learner in the context of his or her nature. Training for careful observation and record-keeping will have to be organised and executed in a careful and academically sound manner, to enable teachers to fulfill the expectation of the RTE Act. For guiding teachers to observe a child’s behaviour and attitudes, a new initiative will have to be taken for developing relevant material which can serve as a basis for training programmes.

Report  of the Committee on Implementation of RTE and Consequent Revamp of SSA

कौशल (skill) और दक्षता (competency)

आज ट्रेनिंग के दौरान यह प्रश्न उठा कि कौशल (skill) और दक्षता (competency) में क्या अंतर है ? इसे बेहतर ढंग से समझने के लिए एक लिंक  दे रहा हूँ, जरुर देखिये और अपने विचारों को यहाँ साझा भी करें।

http://www.talentalign.com/skills-vs-competencies-whats-the-difference/

Saturday 26 October 2013

Children engaged in Learning Process





सतत एवं व्यापक मूल्यांकन क्या है?

सतत एवं व्यापक मूल्यांकन क्या है?
सतत एवं व्यापक मूल्यांकन क्या नहीं है
सतत एवं व्यापक मूल्यांकन बच्चे के आकलन की निरन्तर चलने वाली विकासात्मक प्रक्रिया  है.
बच्चों में अवांछनीय परिवर्तन पाए जाने की सिथति में उन्हें डरा-धमकाकर अध्ययन के लिए प्रेरित या बाध्य करना।
सतत एवं व्यापक मूल्यांकन बच्चे के विकास के सभी पहलुओं को बताता है।
केवल पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर बच्चे को मूल्यांकित करना।
बच्चे की सीखने की सिथति को देखते हुए कितना सीखा है, को जानकर अपनी शिक्षण पद्धति में आवश्यकतानुसार बदलाव दिया जाता है।
बच्चे की सीखने की सिथति को नजर अंदाज कर केवल एक ही शिक्षण पद्धति द्वारा ज्ञान प्राप्त करने हेतु बाध्य किया जाता है।
बच्चों की प्रगति को देखकर उनका श्रेणीकरण नहीं किया जाता है।
बच्चों की प्रगति को देखकर उनका श्रेणीकरण जैसे होशियार, मूढ़, धीमी गति से सीखने वाला आदि शब्दों में किया जाता है।
सतत एवं व्यापक मूल्यांकन का उददेश्य सीखने को और बेहतर बनाना और कमजोरियों का पता लगाना एवं उनका निदान करना है।
उन बच्चों की पहचान करना जिन्हें अतिरिक्त शिक्षण की आवश्यकता है।
सतत एवं व्यापक मूल्यांकन में बच्चे की संवृद्धि (ळतवूजी) और विकास के शैक्षिक और सह शैक्षिक उददेश्यों की प्रापित होती है।
परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर बच्चे को मूल्यांकित करना।
सतत एवं व्यापक मूल्यांकन में सीखने की गति एवं दिशा के साथ-साथ बच्चे की आवश्यकता, अभिरूचि, कौशल, योग्यता को भी जाना जाता है।
सीखने में आने वाली कठिनाइयों और समस्या क्षेत्रों की पहचान कर बच्चे को डरा-धमका के सिखाने का प्रयास करना।
सतत एवं व्यापक मूल्यांकन में बच्चे की मुलना उसकी अपनी पिछली सिथति से की जाती है।
इसमें बच्चे की प्रगति की तुलना दूसरे बच्चों की प्रगति से की जाती है।
सतत एवं व्यापक मूल्यांकन में बच्चे ने क्या सीखा और आगे सीखने-सिखाने की प्रक्रिया कैसी होनी चाहिए तय किया जाता है।
केवल बच्चे की उपलबिध स्तर को जाना जाता है।

Friday 25 October 2013

Continuous and Comprehensive Evaluation - An Introduction


सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन

प्रत्येक बच्चे की प्रकृति एवं सीखने की गति में भिन्नता होती है तथा वे अलग-अलग विधियों से सीखते हैं। हर विषयवस्तु को सीखने-सिखाने की विधियांे में भिन्नता होने के कारण प्रत्येक बच्चे की प्रस्तुति एवं अभिव्यक्ति भी पृथक एवं विशिष्ट होती है।  अतः यह आवश्यक है कि बच्चों का मूल्यांकन कागज-कलम परीक्षा के अतिरिक्त अन्य विधाओं द्वारा भी किया जाये।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम.-2009 (आर.टी.ई.-2009) और राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 (एन.सी.एफ -2005) में यह बार-बार कहा गया है कि बच्चे के अनुभव को महत्व मिलना चाहिए एवं उसकी गरिमा सुनिश्चित की जानी चाहिए, परन्तु यह तब तक पूर्णतया संभव नहीं है जब तक कि प्रचलित मूल्यांकन पद्धति में परिवर्तन न किया जाय। वर्तमान मूल्यांकन व्यवस्था में किसी समय बिन्दु पर लिखित परीक्षा की व्यवस्था है, जबकि छात्र का संवृद्धि एवं विकास सम्पूर्ण सत्र में विकसित होता है। साथ ही इस तरह के मूल्यांकन से कुछ बच्चों को असुरक्षा, तनाव, चिंता और अपमान जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है।

वर्तमान व्यवस्था में केवल बच्चे की अकादमिक प्रगति का मूल्यांकन होता है, जबकि बच्चे के सर्वांगीण विकास में अकादमिक प्रगति के साथ-साथ उसकी अभिवृत्तियों, अभिरूचियों, जीवन-कौशलों, मूल्यों तथा मनोवृत्तियों में होने वाले परिवर्तनों का भी समान महत्व होता है। चूॅंकि प्रत्येक बच्चे की प्रकृति विशिष्ट है और शिक्षण पद्धतियाँ भी भिन्न होती हैं, अतः एक समान मूल्यांकन पद्धति उपयुक्त नहीं हो सकती है।

निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 की धारा 29 की उपधारा (2)  के अनुसार मूल्यांकन प्रक्रिया में निम्नलिखित बिन्दुओं का ध्यान रखा जाना आवश्यक हैः-

(ख) - बच्चों का सर्वांगीण विकास हो।
(घ) - पूर्णतम मात्रा तक शारीरिक और मानसिक योग्यताओं का विकास हो।
(ज) - बच्चों के समझने की शक्ति और उसे उपयोग करने की उसकी योग्यता का व्यापक और सतत् मूल्यांकन हो।

सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन क्या है?


  • सतत एवं व्यापक मूल्यांकन का आशय है कि बच्चे की प्रतिक्रिया व कक्षा की गतिविधियों में उसके प्रतिभाग की स्थिति से शिक्षक का कार्य निरन्तर निर्देशित होता रहे। 
  • बच्चों के मूल्यांकन की यह सतत एवं व्यापक प्रक्रिया कोई पृथक गतिविधि न होकर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का अभिन्न, सतत् और सारगर्भित अंग है। 
  • बच्चे की प्रगति के लिए आवश्यक है कि मूल्यांकन की प्रक्रिया बाल केन्द्रित हो, कक्षा में पाई जाने वाली विविधता को समझने वाली हो, आवश्यकता के अनुसार लचीली हो तथा हर बच्चे की आयु, सीखने की गति, शैली और स्तर के अनुसार चलने वाली हो। 

मूल्यांकन में सतत्ता का यहां अभिप्राय यही है कि शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया के साथ-साथ ही अवलोकन, कक्षा-कार्य, गृहकार्य, प्रोजेक्ट कार्य आदि के द्वारा समेकित रूप में मूल्यांकन की प्रक्रिया भी चले। व्यापक का आशय केवल अकादमिक प्रगति को देखना ही नहीं है वरन् बच्चे के नैतिक, सामाजिक, शारीरिक, भावनात्मक विकास की भी जानकारी प्राप्त करना है। शिक्षा का उद्देश्य बच्चों में पाठ्यक्रमीय दक्षताओं और कौशलों का विकास करना मात्र न होकर छात्रों का सर्वांगीण विकास करना है।


मूल्यांकन में सततता के साथ-साथ व्यापकता का तत्व समाहित किये बिना बच्चों के सर्वांगीण विकास के लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इसके लिए आवश्यक है कि बच्चों के शारीरिक विकास, अनुशासन, नियमित उपस्थिति, खेलों तथा सांस्कृतिक गतिविधियों में सहभागिता, नेतृत्व क्षमता, सृजनात्मकता आदि व्यक्तिगत एवं सामाजिक गुणों के क्रमिक विकास का सतत मूल्यांकन किया जाता रहे।

सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन क्यों आवश्यक है?
  • ‘‘सतत एवं व्यापक’’ मूल्यांकन प्रक्रिया के द्वारा शिक्षण-अधिगम के समय ही शिक्षक को छात्रों के सीखने की प्रगति और कठिनाईयों के बारे में निरन्तर जानकारी मिलती रहेगी। 
  • इस प्रकार की व्यवस्था में एक दीर्घ अन्तराल के बाद चलाए जाने वाले उपचारात्मक शिक्षण की आवश्यकता भी समाप्त हो जायेगी, क्योंकि छात्र की कठिनाई का समय रहते निदान और उपचार हो सकेगा। 
  • साथ ही यथासमय ही कठिनाइयों का निवारण होने से छात्रों में आत्मविश्वास जागृत होगा, सीखने की प्रक्रिया सुगम होगी और छात्रों के मन से परीक्षा विषयक भय और तनाव भी दूर होगा। 
  • इस क्रम में शिक्षक और छात्र के बीच जो संवाद और आत्मीयता के संबंध विकसित होंगे, उनसे छात्रों की उपस्थिति में तो वृद्धि होगी ही साथ ही साथ बीच में विद्यालय छोड़ जाने वाले ;क्तवचवनजद्ध छात्रों की संख्या में भी गिरावट आयेगी।
बिना लिखित परीक्षा के हम कैसे जानेंगे कि बच्चे ने कितना सीखा है?

सतत एवं व्यापक मूल्यांकन का अर्थ यह नहीं है कि लिखित आकलन न किया जाए। इसका मतलब है केवल वर्ष के अंत के बजाए बच्चों का लगातार मूल्यांकन करना जिसमें शिक्षक विभिन्न गतिविधियों व तरीकों का इस्तेमाल करता है। आवश्यकता होने पर लिखित आकलन भी करता है। इसमें शिक्षक यह सुनिश्चित करें कि ये सभी कार्य बिना किसी भय, दबाव व तनाव के वातावरण में हो। साथ ही परीक्षा से प्राप्त परिणाम का इस्तेमाल बच्चे में सुधार करने के लिए किया जाए न कि उसे प्रताडि़त करने के लिए।


सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन कैसे किया जाना चाहिए?

प्रत्येक बच्चा अपने आप में विशिष्ट है, तथा वह अपनी विशिष्ट शैली में सीखता है। विकास के विभिन्न क्षेत्रों में बच्चों की प्रगति की दर विभिन्न होती है। बच्चे की सीखने की प्रगति सुनिश्चित करने के लिये सर्वप्रथम आवश्यक है कि उसकी गति, रूचि और शैली के संबंध में जानकारियाँ प्राप्त की जाय। 
मूल्यांकन चक्रीय एवं क्रमिक प्रक्रिया है। इसमें विभिन्न सोपान निम्नलिखित हैं-
  • भिन्न-भिन्न स्रोतों से, तरह-तरह की विधियों के माध्यम से बच्चे के बारे में सूचनाओं और प्रमाणों का संग्रह करना।
  • प्राप्त सूचनाओं और प्रमाणों को अभिलेखों में दर्ज करना (रिकार्डिग करना)।
  • संग्रहीत सूचनाओं और प्रमाणों के आधार पर बच्चे की प्रगति के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकालना।
  • मूल्यांकन सम्बन्धी पृष्ठपोषण बच्चों, अभिभावकों, शिक्षकों व अन्य सम्बन्धित लोगों को बताना।
  • विभिन्न अभिलेख यथा शिक्षक डायरी, छात्र संचयी प्रपत्र, छात्र प्रोफाइल आदि का उपयोग शिक्षण योजना व प्राप्त सूचनाओं को दर्ज करने में किया जाता है।
मूल्यांकन से प्राप्त फीडबैक का उपयोग शिक्षक कैसे करे?

मूल्यांकन से प्राप्त फीडबैक एक शिक्षक के लिए बच्चों के साथ काम करने के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है। इसके उपयोग के लिए शिक्षक को इन बातों का ध्यान रखना चाहिए।
  • प्रत्येक बच्चे से उसके काम के बारे में बातचीत करें, कौन-कौन सा काम अच्छी तरह से किया गया है, कौन सा नहीं और कहां-कहां सुधार की आवश्यकता है।
  • बच्चे और अध्यापक दोनों मिलकर इस बात की पहचान करें कि बच्चों को किस प्रकार की सहायता की आवश्यकता है।
  • बच्चे को अपना-अपना पोर्टफोलियो देखने तथा हाल ही में किए गए कामों की तुलना पुराने काम से करने के लिए प्रोत्साहित किया जाय।
  • सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वयं की तुलना अपने पिछले कार्यों की प्रगति से करें न कि दूसरों के कार्यों से। 
  • अभिभावकों के साथ चर्चा करना कि (अ) बच्चों की किस तरह से मदद कर सकते हैं, (ब) घर पर उन्होंने किस तरह का अवलोकन किया है।