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Saturday 30 November 2013

Skills and Competencies

The terms "skills" and "competencies" are often used interchangeably, but they are not necessarily synonymous. Competencies may refer to sets of skills, but "competency" is more of an umbrella term that also includes behaviors and knowledge, whereas skills are specific learned activities that may be part of a broader context. 
By looking at several examples of both competencies and skills, the difference may become clearer.

Competency: Problem Solving
Problem solving is a competency that requires several skills, knowledge and behaviors to be performed well. For example, to solve problems effectively one must have the skill to define the problem, have knowledge of all possible solutions, and exhibit behavior that enables him or her to make a decision.

Skill: Event Planning
Event planning is a skill that can be taught to anyone with the ability to learn it. Several steps may be considered when planning an event, and different tasks must be completed for different kinds of events. All of these things are hard skills, but may be part of an overall competency like leadership or problem solving.

Competency: Communication
Many people refer to their strong communication skills, but communication is really a competency that relies on a combination of certain skills, behavior and knowledge. To communicate effectively, for example, a person may need to understand cultural diversity, have advanced language skills, and behave with patience.

Skill: Presentations
Through reading books, taking classes and practicing, it is possible to learn how to give effective presentations. Presentation skills are more easily absorbed by some people than by others, but a presentation is still a task one can learn how to perform. Presentation skills may be part of a larger competency such as communication.

- Posted as comment by 
Ms. Vandana Mishra,
 Technical Associate, CARE India
on 26 November 2013 01:50

Thursday 28 November 2013

CCE की ट्रेनिंग में प्रतिभाग

जनपद रायबरेली में CCE की ट्रेनिंग के सिलसिले में मेरी विजिट का आज तीसरा दिन था. इसके पहले मैं वाराणसी में भी CCE की ट्रेनिंग देख चुका हूँ. एक कॉमन ऑब्जरवेशन मेरा यह रहा है कि पुरुष शिक्षकों की तुलना में महिला शिक्षकों की रूचि और भागीदारी कहीं ज्यादा दिख रही है. चाहे ट्रेनिंग के दौरान बड़े समूह में चर्चा हो रही हो या फिर छोटे समूह में, किसी गतिविधि में प्रतिभाग का सवाल हो, या फिर किसी प्रश्न का उत्तर देना हो. इन सबमें महिला शिक्षक बढ़-चढ़ कर प्रतिभाग कर रही हैं. वहीँ सक्रिय प्रतिभाग करने वाले पुरुष शिक्षकों की संख्या कम है.


आखिर ऐसा क्यों है?

Sunday 24 November 2013

गणित की एक कक्षा

गणित की एक कक्षा का दृश्य

कक्षा: 5                विषय: गणित              पाठ: 8                  लाभ-हानि
उददेश्य : दैनिक जीवन में गणितीय अवधारणाओ की समझ पैदा करना, तार्किक क्षमता का विकास करना।
कक्षा कक्ष में पहुंचने के पर शिक्षक ने सभी को नमस्ते बोला।
सभी बच्चों ने भी एक साथ कहा - नमस्ते सर।
तभी एक छा़त्रा सीमा बोली- सर जी, आज हम लोग क्या पढ़ेगे?
शिक्षक: (छात्रा की पहल को देखते हुए) सीमा! क्या तुमको पता है हम क्या पढ़ने वाले है?
सीमा: हा सर जी, शायद हमलोग लाभ, हानि के बारे में पढ़ेंगे।
रमजान: (सीमा की बात काटते हुए) सर जी, ये दुकान पर सामान बेचती है इसलिये ये लाभ-हानि के बारे में ही हमेशा बोलती है। (सभी बच्चे हंसने लगे, तभी मालती बोली)
मालती: गलत........सीमा सामान नहीं बेचती है, उसके पापा बेचते हैं।
शिक्षक: बहुत अच्छा, तब तो तुम लोगो को सामान लाने शहर नहीं जाना पड़ता होगा। (तभी किस्मत अली बोला)
किस्मत अली: सर जी इनके पापा बहुत महंगा सामान देते हैं। (सीमा तेजी से बोली)
सीमा: बाजार से लाते है तो मेहनताना तो लेंगे ही।
शिक्षक: सीमा तुम्हारे पापा कौन-कौन सा सामान दुकान पर बेचते हैं। (बबली बीच में टोकती हुर्इ बोली)
बबली: सर जी हम बतायें........?
शिक्षक: वाह, कमाल हो गया, दुकान सीमा के पापा की और सामान तुम्हें पता है, ठीक है बताओ।
बबली: आलू, प्याज, बिसिकट, दालमोठ....
रानी: माचिस, नमक, .........
रिंकू: दाल, चावल, आटा,
(बच्चे उत्साहित होकर सामान का नाम गिनाने लगते है शिक्षक उन्हें श्यामपटट पर लिखता है)
शिक्षक: ठीक है, ये बताओ सीमा, तुम्हारे पापा एक पैकेट बिसिकट कितने का बेचते है!
सीमा: 06 रूपये का ।
शिक्षक: और खरीदते कितने का है?
सीमा: 5 रूपये का ।
रिंकू: सर जी एक रू0 का नफा लेते है।
शिक्षक: अच्छा कोर्इ ऐसा है जिसने कापी भी खरीदी हो सीमा के पापा की दुकान से। कर्इ बच्चे एक साथ बोलने लगे.......कापी, पेन, आलू, (कुछ बच्चे मजा लेने के लिये उत्साही होकर और चीजो का नाम बताते हैं।)
शिक्षक: अच्छा यह बताओ, एक किलो आलू यहा कितने का मिलता है?
सीमा: (तपाक से बोली) हमारे पापा 12 रू0 किलो देते है। (तभी मालती बात काटते हुये बोली)
मालती: सर इनके पापा बलरामपुर से आलू 10 रू0 किलो लाते हैं और यहा 12 रू0 किलो बेचते हैंं। एक किलो पर 2 रू0 का नफा लेते है। (शिक्षक श्यामपटट पर लिखता है)
                सीमा के पापा गांव में आलू बेचते हैं 12 रू0 किलो
                सीमा के पापा बलरामपुर से आलू खरीदते है 10 रू0 किलो
शिक्षक: अच्छा जैसे मालती ने कहा कि सीमा के पापा को 2 रू0 का नफा हुआ तो इनको यह कैसे पता चला........?
      (बच्चे थोडी देर के लिये चुप रहें, और एक दूसरे से बातचीत करने लगे। कुछ देर बाद बोले)
रमजान: सर जी जितने में खरीदा है वह मूल्य जितने मे बेचा है उसमें से घटा कर  बताया। (सभी बच्चे रमजान की हा में हा मिलाने लगे)
शिक्षक: बहुत अच्छा, तब जो दो 2 रू0 का नफा हुआ उसको लाभ कहते हैं। अच्छा यह बताओ कि कभी 6 रू0 वाला बिसिकट 4 रू0 में भी बेचा है सीमा ........तुम्हारे पापा ने?
सीमा: हा जब बिसिकट टूट जाता है, तब.......
शिक्षक: तब कितने का नफा होता है?
बबली: (हंसते हुए) सर जी तब नफा होगा कि घाटा........!
शिक्षक: क्यों नफा नहीं होगा।
मालती: सर जी, वो बिसिकट 5 रू0 में खरीदा था तब टूट गया तो 4 रू0 में बेच दिया तो एक रू0 का घाटा हुआ
(श्यामपटट में शिक्षक ने लिखा)
                बिसिकट खरीदा- 5 रू0 में
                बिसिकट बेचा- 4 रू0 में
शिक्षक: यह तुमको कैसे पता चला?
मालती: सर जी, जितने रू0 में खरीदा था उसमें से जितने रू0 में बेचा घटा दीजिए। बस पता चल जायेगा।
शिक्षक: जो एक रू0 का घाटा हुआ उसी को हानि कहते है।
                जब बेचा गया मूल्य खरीदे गये मूल्य से अधिक होता है, तो लाभ होता है।''
                जब बेचा गया मूल्य खरीदे गये मूल्य से कम होता है, तो हानि होता है।''
शिक्षक: अच्छा बताओ........खरीदे गये मूल्य को और क्या कहते है?
                (बच्चे चुप रहते है आपस में बातचीत करने लगते हैं)
शिवकुमारी: (कुछ सोचते हुए) या तो क्रय मूल्य या विक्रय मूल्य में से कोर्इ एक है।
शिक्षक: ठीक कहा:
                खरीदे गये मूल्य को क्रय मूल्य कहते हैं।
                बेचे गये मूल्य को विक्रय मूल्य कहते हैं।
                (इस पर बच्चे आपस में बातचीत करने लगते हैं)
शिक्षक ने कक्षा के वातावरण को सरल बनाते हुए कक्षा कक्ष में बातचीत का मौका का माहौल तैयार किया, जिसमें बच्चे पूरी तरह सहज दिखें।

कक्षा-कक्ष की प्रकि्रया के दौरान (आंकलन के नजरिये से) शिक्षक ने देखा कि:
•             बच्चे बातचीत करते समय सहज और उत्साह से अपनी बात कहने को उत्सुक दिखे।
•             बातचीत के दौरान बच्चे आनन्द का अनुभव करते दिखायी दिये।
•             सीमा अपने पापा की दुकानदारी की बात करते हुए बहुत उत्साही दिखार्इ दी।
•             मालती बातचीत के दौरान ही यह बता ले रही है कि सीमा के पापा के कितनी लाभ और हानि हो रही है।
•             रमजान भी लाभ हानि को बता पा रहा है।
•             रिंकू, मिंटू, रानी, सिराज क्षेत्रीय भाषा में बात करने में ज्यादा सहज दिख रहे हैं।
सबसे अच्छी बात यह दिखी कि बच्चों को सामानों की खरीदारी और बेचने तथा उससे होने वाले लाभ व हानि के बारे में इतने उत्साही होकर बात कर रहें है कि उन्हे लगा ही नही कि कक्षा शिक्षण हो रहा है।
संकेतक: बच्चे लाभ-हानि क्रय-विक्रय मूल्य को बता रहे हैं।

Shared by : महमूदुल हक
00, पू0मा0वि0 मुजेहनी,

बलरामपुर।

Friday 22 November 2013

सतत एवं व्यापक मूल्यांकन क्यों?

हम सतत एवं व्यापक मूल्यांकन क्यों करें? क्या बिना रिकार्डिंग के सतत एवं व्यापक मूल्यांकन नहीं हो सकता है?

यह यक्ष प्रश्न मेरे सामने उस वक्त आया जब मैं बाबा भोले की नगरी काशी में सतत एवं व्यापक मूल्यांकन के अंतर्गत शिक्षक प्रशिक्षण के अवलोकन एवं अनुसमर्थन प्रदान करने के सिलसिले में एक विकास खंड में शिक्षकों से रूबरू हो रहा था।

प्रशिक्षण शुरू हुये तीन दिन बीत चुके थे और यह चौथा दिन था। पूर्व की भांति ही मैं शिक्षकों से यह समझने का प्रयास कर रहा था कि गत दो दिवसों में क्या कुछ हो चुका है। इसी बातचीत के क्रम में मैं यह आकलन कर रहा था कि उक्त प्रशिक्षण के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर प्रतिभागी शिक्षकों की समझ कितनी बनी है, और मुझे किन बिन्दुओं पर बात को आगे बढ़ानी चाहिये।

उक्त शिक्षक महोदय बिना कुछ प्रतिक्रिया दिये हमारी वार्ता सुन रहे थे। वार्ता के क्रम में अन्य शिक्षक साथियों जिनमें शिक्षिकाओं की संख्या अधिक थी, ने कर्इ प्रश्न किये जिनका मैंने अपनी समझ से उत्तर देने की कोशिश की। मुख्यत: संकेतक और रिकार्डिंग पर ही अधिक प्रश्न थे।

जब वार्ता अपनी आखिरी पड़ाव की ओर थी और मैं मानसिक रूप से अगले विकास खंड की तरफ बढ़ने को अपने को कह रहा था, उसी समय वे शिक्षक महोदय उठे और अपनी अंदर चल रहे झंझावातों से मुझे झकझोरने के अंदाज में बोले - "यह बताइए कि आखिर हम सतत एवं व्यापक मूल्यांकन क्यों करें? क्या पहले हम बच्चों का मूल्यांकन नहीं करते थे? क्या पहले बच्चे नहीं सीखते थे? फिर हमारे ऊपर इतना बोझ क्यों थोपा जा रहा है?"

अपनी बात कहने के बाद कक्ष में चारों ओर निगाह दौड़ाकर अन्य शिक्षकों पर इसका प्रभाव देखने की कोशिश करते हुए मानो वे यह कहना चाह रहे हों कि देखा आपने, मुख्य प्रश्न तो मैंने पूछा है। आप लोग तो अभी तक बस इधर-उधर की ही बातें कर रहे थे।

सतत एवं व्यापक मूल्यांकन से मास्टर साब को आशय रिकार्डिंग से था। अभी भी हमारे कर्इ शिक्षक साथी रिकार्डिंग को ही सतत एवं व्यापक मूल्यांकन का पर्याय समझते हैं। यह धारणा हमारे सामने बहुत बड़ी चुनौती है। 

ख़ैर, मास्टर साब के प्रश्न पूछने के बाद भी मैं अपनी स्वाभाविक मुस्कान बनाए रखने की कोशिश में सफल रहा, हालांकि अंदर कुछ उफान सा उठता हुआ मैंने महसूस किया। मैंने मास्टर साब से कहा - "सर, आज ट्रेनिंग का तीसरा दिन है, और मेरे ख्याल से पहले दिन ही इस प्रश्न पर चर्चा हुर्इ होगी।"

"नहीं सर, आप बताइए। हम अभी तक इसे समझ नहीं पाये हैं।" मास्टर साब ने प्रतिरोध के स्वर में अपनी बात को पुन: लगभग दुहरा सा दिया।

मैंने इस प्रश्न को सदन में सभी के सामने रखते हुये कहा - "क्या आप में से कोर्इ शिक्षक साथी मास्टर साब की इस शंका का समाधान करना चाहेंगे?"

पहले तो प्रतिक्रिया शून्य रही। मैं इस प्रश्न का उत्तर शिक्षक साथियों से ही चाह रहा था। अत: मैंने अपनी बात को पुन: दूसरे शब्दों में रखा - "अभी जब आपसे बात हो रही थी, तब आपने इस प्रश्न का उत्तर दिया था। बहुत ही अच्छे तरीके से आपने सतत एवं व्यापक मूल्यांकन का क्या अर्थ है, इसका महत्त्व क्या है और रिकार्डिंग करने के क्या फायदे हैं, इस पर अपनी बातों को रखा था। बताइए!"

एक मैडम जी उठीं। मुझे ऐसा लगा कि उन्हें इस सिस्टम में आये दो-तीन वर्षों से ज्यादा नहीं हुआ होगा। बड़े ही सरल शब्दों में उन्होंने कहा - "सर, वैसे तो यह ठीक है कि बच्चों को पढ़ाने के लिए हमारे मन में कुछ प्लानिंग होती है, लेकिन जब हम इसे लिखते हैं, तो हमें गंभीरता के साथ सोचना पड़ता है। इससे हमारी प्लानिंग और बढि़या होती है। उसी प्रकार कक्षा की समापित के बाद पुन: जब हमें अपनी टिप्पणी दर्ज करनी होती है, तो हम एक बार फिर से सोचने के लिए बाध्य हो जाते हैं। अगर हम न लिखें, तो निशिचत रूप से हम इस प्रकार से सोचकर काम नहीं करते हैं। इस प्रकार रिकार्डिंग करने से शिक्षक अपने काम को गंभीरता से और बेहतर ढंग से करने लगता है। एक बात और, लिखने से यह अभिलेख के रूप में हमारे पास होता है जिसका उपयोग हम भविष्य में कर सकते हैं, अन्यथा न लिखने की दशा में हम तो भूल जाएंगे।"

इस प्रकार बहुत ही सटीक भाषा में सतत एवं व्यापक मूल्यांकन एवं रिकार्डिंग के महत्त्व और उपयोगिता को पूरे सदन के सामने रखने के लिए मैंने मैडम को ह्रदय से धन्यवाद दिया। कुछ ओर शिक्षकों ने भी मैडम की बात का समर्थन किया।

मैंने फिर मास्टर साब से पूछा - "सर, क्या अब भी मेरी तरफ से कुछ कहने की आवश्यकता है?"

मास्टर साब शांत थे।

इस चर्चा को समाप्त करते हुए मैंने बस इतना और जोड़ा - "हमें इस बात पर ग़ौर करने की ज़रूरत है कि आखिर हमें अपना काम ही बोझ क्यों लगने लगता है? हम सभी अपने विधालय के बच्चों को एक बेहतर भविष्य देना चाहते हैं, और उसी लक्ष्य को लेकर हम सभी अपने तरीके से बच्चों को सीखने में मदद करते हैं। सतत एवं व्यापक मूल्यांकन की यह पूरी प्रक्रिया हमें अपने ही काम को और बेहतर ढंग से करने में हमारी मदद करती है। जिस दिन हम इस रूप में इसे समझेंगे, यह हमें बोझ नहीं लगेगी। यह हमारी शिक्षण प्रक्रिया का एक अंतरंग, अभिन्न एवं अक्षुण्ण हिस्सा बन जाएगी।"

आपके क्या विचार हैं? ज़रूर लिखयेगा!
- महेंद्र

Monday 18 November 2013

संकेतक की कविता

बच्चों ने कितना सीखा, ये संकेतक बतलाते हैं,
पाठयक्रमीय लक्ष्यों को हासिल करने के नाते हैं।
अब तक मैंने इतना सीखा, जाना या फिर पहचाना,
इसकी सम्यक समझ न जिनकों, राहों में रह जाते हैं।।

बहुत जरूरी हम शिक्षक हित संकेतक का ज्ञान है,
अब प्रकरण पर नहीं प्रकि्रया पर ही देना ध्यान है।
कितनी हुयी प्रगति अब तक होती इससे पहचान है,
मेरा तो मन्तव्य यही, ये CCE की जान है।।

Composed by - बिन्देश्वरी प्रसाद,
0बी0आर0सी0-पिण्डरा,
वाराणसी।

Shared by - महमूदुल हक
00, पू0मा0वि0-मुजेहनी,
बलरामपुर।

बच्चों की प्रगति के संकेतक

यह हमारी एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि किसी भी नए प्रत्यय या शब्दावली की हम परिभाषा ढूंढ़ने की कोशिश करने लगते हैं। कुछ शब्द ऐसे होते हैं जिनकी कोर्इ निर्धारित परिभाषा नहीं होती है। वे अपने गुणों व विशेषताओं से पहचाने जाते हैं। जैसे, शिक्षा की परिभाषा क्या होगी? या फिर सत्य को आप कैसे परिभाषित करेंगे? ऐसे शब्दों की कोर्इ निशिचत परिभाषा नहीं होती है। इनके गुणों की वजह से ही इनकी पहचान होती है। साथ ही ये तुलनात्मक होते हैं। शिक्षा या सत्य की परिभाषा व्यक्ति विशेष पर निर्भर होती है तथा यह उनके लिए अलग-अलग हो सकती है।

संकेतक एक ऐसा ही शब्द है। आइए, हम इसकी बुनियादी समझ बनाने की कोशिश करते हैं। अब तक हम दक्षता के आधार पर बच्चों के अधिगम स्तर का निर्धारण करते रहे हैं जिसे Minimum Level of Learning कहते हैं। ये दक्षताएं एक पाठयक्रम के माध्यम से प्रदेश के समस्त विधालयों में लागू होती हैं। इस प्रकार एक समान दक्षताओं के आधार पर ही समस्त विधालयों में शिक्षक अपनी शिक्षण योजना बनाते हैं। प्रश्न यह है कि क्या यह उचित है? क्या प्रदेश के समस्त विधालयों में बच्चों के सम्प्रापित आकलन के लिए एक जैसा मानदण्ड निर्धारित करना चाहिए? या फिर इसे तय करने की जि़म्मेदारी व स्वतंत्रता विधालय व शिक्षक के ऊपर छोड़ देना चाहिए?

तमाम प्रयोगों व अध्ययन के आधार पर प्राप्त निष्कर्ष यह बताते हैं कि इस प्रकार के मानदण्ड या संकेतक का निर्माण करने की स्वतंत्रता विधालय व उसके शिक्षक के पास होनी चाहिए। शिक्षक ही वह व्यकित होता है जो अपनी विधालय व कक्षा के बच्चों की आवश्यकता व संप्रापित से बेहतर ढंग से अवगत होता है। संकेतक बच्चों की इसी प्रगति का आकलन करने में मदद करता है और शिक्षक ही इसे बेहतर ढंग से बना सकता है। अत: यह लचीली होती है। हो सकता है कि शिक्षक दो-तीन संकेतकों को मिलाकर एक संकेतक बना ले, या फिर एक संकेतक को दो या अधिक संकेतकों में विभाजित कर अपनी शिक्षण कार्ययोजना बना सकता है।

संकेतक हमें बच्चों के प्रगति के मानदण्ड प्रदान करते हैं। संकेतक हमें यह बताते हैं कि बच्चे ने अभी तक कितना ज्ञान व कौशल अर्जित किया है। साथ ही संकेतक हमें यह भी बताते हैं कि बच्चे की प्रगति की दिशा क्या है। साथ ही ये आकलन के प्रति शिक्षक व विधालय का नज़रिया प्रस्तुत करते हैं। यह नज़रिया स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार अपने मानदण्डों के निर्धारण को दर्शाता है।

पूर्व में शिक्षक का ज़ोर बच्चों के उत्तर पर रहता था, और इस क्रम में प्रक्रिया गौण हो जाती थी। यह दृषिटकोण सही नहीं था। संकेतक हमें प्रक्रिया की ओर ले जाता है। संकेतक इस बात पर ज़ोर देता है कि बच्चे ने उत्तर किस प्रकार प्राप्त किया है। प्रक्रिया बहुत ही महत्त्वपूर्ण है और संकेतक इसी ओर इंगित करता है। उदाहरण के लिए, शिक्षक ने कक्षा में हासिल का जोड़ कैसे किया जाता है, इस विषय पर शिक्षण किया। यह जांचने के लिए कि बच्चों ने यह सीखा कि नहीं, उसने एक प्रश्न (17+25) बोर्ड पर लिखा। कुछ बच्चों ने इसका उत्तर 312 लिखा। शिक्षक ने गलत उत्तर देखकर उस उत्तर को लाल रंग से काट दिया। क्या यह सही है? अगर हम बच्चे के उत्तर का विश्लेषण करें तो यह पता चलता है कि बच्चे ने एक अंक का जोड़ सही किया है। इस आधार पर उसकी वर्तमान संप्राप्ति स्तर का पता चलता है कि वह एक अंक का जोड़ कर रहा है।

संकेतक बच्चों की प्रगति का आकलन करने में मदद करती है. शिक्षक को सतत और व्यापक मूल्याङ्कन की अपनी आँख खुली रखनी चाहिए ताकि संकेतक का वह लगातार इस्तेमाल करते हुए शिक्षण अधिगम प्रक्रिया की प्रभाविता का लगातार मूल्याङ्कन करता रहे और उसमें आवश्यकता अनुसार परिवर्धन करता रहे. संकेतक इसे प्रभावी तरीके से अमल में लाने में शिक्षक की मदद करता है.



संकेतक पाठयक्रमीय लक्ष्यों पर आधारित होते हैं।

Sunday 3 November 2013

आकलन की समझ व पारम्परिक मूल्यांकन की प्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता

वर्तमान समय में प्रदेश के विधालयों में पारम्परिक मूल्यांकन की जो प्रणाली लागू है, उसके अन्तर्गत वार्षिक और अद्र्धवार्षिक परीक्षा के अतिरिक्त सत्र के मध्य में भी ली जाने वाली दो परीक्षाओं- कुल मिलाकर चार लिखित परीक्षाओं के माध्यम से मूल्यांकन का प्रावधान है। वर्तमान मूल्यांकन प्रकि्रया पूरी तरह से औपचारिक ताने-बाने में गुँथी हुअी है। निशिचत अवधि के अंतराल पर मौखिकलिखित परीक्षा के दिन तय किये जाते हैं।

आर.टी.र्इ.-2009 और एन.सी.एफ.-2005 में यह बार-बार कहा गया है कि बच्चे के अनुभव को महत्व मिलना चाहिए एवं उसकी गरिमा सुनिशिचत की जानी चाहिए, परन्तु यह तब तक पूर्णतया संभव नहीं है जब तक कि प्रचलित मूल्यांकन पद्धति में परिवर्तन न किया जाय। वर्तमान मूल्यांकन व्यवस्था में किसी समय विशेष पर लिखित परीक्षा की व्यवस्था है, जबकि छात्र का संवृद्धि एवं विकास सम्पूर्ण सत्र में विकसित होता है। इस तरह के मूल्यांकन से कुछ बच्चों को असुरक्षा, तनाव, चिंता और अपमान जैसी सिथतियों का सामना करना पड़ता है। सावधिक परीक्षाओं से यह तो पता चलता है कि बच्चे कितना जानते हैं, पर यह नहीं पता चलता कि जो नहीं जानते उनके न जानने के क्या कारण हैं। इस तरह का मूल्यांकन पाठय पुस्तकों में पढ़ार्इ गर्इ विषयवस्तु और रटंत प्रणाली द्वारा प्राप्त की गर्इ जानकारीज्ञान का मूल्यांकन करने तक ही सीमित है। 

अधिकांशत: यह बच्चों में तुलना करने जैसे भाव रखता है और अवांछनीय प्रतिस्पर्धा को जन्म देता है। वर्तमान व्यवस्था में केवल बच्चे की अकादमिक प्रगति का मूल्यांकन होता है, जबकि बच्चे के सर्वांगीण विकास में अकादमिक प्रगति के साथ-साथ उसकी अभिवृतितयों, अभिरुचियों, जीवन-कौशलों, मूल्यों तथा मनोवृतितयों में होने वाले परिवर्तनों का भी समान महत्व होता है।

इस प्रकार की सिथतियां कुछ महत्वपूर्ण सवालों की तरफ हमारा ध्यान खींचती हैं जैसे- हम किस चीज का मूल्यांकन कर रहे हैं? क्या टेस्टपरीक्षाओं के अतिरिक्त बच्चों का मूल्यांकन करने की कुछ और विधियाँ भी हो सकती हैं? क्या अंकों और ग्रेड के रूप में रिपोर्ट करना पर्याप्त है? मूल्यांकन संबंधी सूचनाएं किस तरह मदद करती हैं? हम अपने काम को कठिन बनाए बिना भिन्न-भिन्न पृष्ठभूमि से आये, और विशेष आवश्यकताओंं वाले बच्चों के सीखने के बारे में सूचनाएं किस प्रकार से इकटठी कर सकते हैं?

अब यह सर्वमान्य तथ्य है कि प्रत्येक बच्चे की प्रकृति एवं सीखने की गति में भिन्नता होती है तथा वे अलग-अलग विधियों से सीखते हैं। हर विषयवस्तु को सीखने-सिखाने की विधियाें में भिन्नता होने के कारण प्रत्येक बच्चे की प्रस्तुति एवं अभिव्यकित भी पृथक एवं विशिष्ट होती है। अत: यह आवश्यक है कि बच्चों का मूल्यांकन कागज-कलम परीक्षा के अतिरिक्त अन्य विधाओं द्वारा भी किया जाये। अन्य विधाओं के प्रयोग से बच्चों की स्मृति क्षमता के स्थान पर अन्य उच्चतर क्षमताओं यथा-अभिव्यकित, विश्लेषण, समस्या का समाधान एवं अनुप्रयोग आदि दक्षताओं का विकास संभव होगा। चूंकि प्रत्येक बच्चे की प्रकृति विशिष्ट है और शिक्षण पद्धतियाँ भी भिन्न होती हैं, अत: एक समान मूल्यांकन पद्धति उपयुक्त नहीं हो सकती है।

इन तथ्यों को ध्यान में रखकर नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 में बच्चों के सीखने और उसे उपयोग करने की योग्यताओं का सतत एवं व्यापक मूल्यांकन करने का प्राविधान किया गया।      

नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 की धारा 29 की उपधारा (2) के अनुसार मूल्यांकन प्रकि्रया में निम्नलिखित बिन्दुओं का ध्यान रखा जाना आवश्यक है:-
(ख) - बच्चों का सर्वांगीण विकास हो।
(घ) - शारीरिक और मानसिक योग्यताओं का पूर्णतम मात्रा तक विकास हो।
(ज) - बच्चों के सीखने की क्षमता, ज्ञान और उसके अनुप्रयोग की क्षमता का व्यापक और सतत मूल्यांकन हो।


बच्चों के मूल्यांकन की यह सतत एवं व्यापक प्रकि्रया कोर्इ पृथक गतिविधि न होकर सीखने-सिखाने की प्रकि्रया का अभिन्न, सतत और सारगर्भित अंग होगी। बच्चे की प्रगति के लिए आवश्यक है कि मूल्यांकन की प्रकि्रया बाल केनिद्रत हो, कक्षा में पायी जाने वाली विविधता को समझने वाली हो, आवश्यकता के अनुसार लचीली हो तथा हर बच्चे की आयु, सीखने की गति, शैली और स्तर के अनुसार चलने वाली हो।

यहाँ सतत एवं व्यापक मूल्यांकन का अर्थ यह कदापि नहीं है कि बच्चों की वार्षिक, अद्र्धवार्षिक और सत्र परीक्षाओं के अतिरिक्त मासिक, पाक्षिक या साप्ताहिक परीक्षाएं ली जाये। बच्चे के विकास का सतत मूल्यांकन एक सामयिक घटना (सत्र परीक्षा या वार्षिक परीक्षा) नहीं होती वरन यह शैक्षणिक सत्र की समूची अवधि में लगातार चलती है। दूसरी ओर व्यापक का आशय अकादमिक प्रगति के साथ-साथ बच्चे के  शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक विकास की भी जानकारी प्राप्त करना है। शिक्षा का उददेश्य बच्चों में पाठयक्रमीय  दक्षताओं और कौशलों का विकास करना मात्र न होकर छात्रों का सर्वांगीण विकास करना है। मूल्यांकन में सततता के साथ-साथ व्यापकता का तत्व समाहित किये बिना बच्चों के सर्वांगीण विकास के लक्ष्य की प्रापित सम्भव नहीं है। इसके लिए आवश्यक है कि बच्चों के शारीरिक विकास, नियमित उपसिथति, खेलों तथा सांस्कृतिक गतिविधियों में सहभागिता, नेतृत्व क्षमता, सृजनात्मकता आदि व्यकितगत एवं सामाजिक गुणों के क्रमिक विकास का सतत मूल्यांकन किया जाता रहे।    

                ''सतत एवं व्यापक मूल्यांकन प्रकि्रया के द्वारा शिक्षण-अधिगम के समय ही शिक्षक को छात्रों के सीखने की प्रगति और कठिनार्इयों के बारे में निरन्तर जानकारी मिलती रहेगी। इस प्रकार की व्यवस्था में एक दीर्घ अन्तराल के बाद चलाए जाने वाले उपचारात्मक शिक्षण की आवश्यकता भी समाप्त हो जायेगी, क्योंकि छात्र की कठिनार्इ का समय रहते निदान और उपचार हो सकेगा तथा यथासमय ही कठिनाइयों का निवारण होने से छात्रों में आत्मविश्वास जाग्रत होगा, सीखने की प्रक्रिया सुगम होगी और छात्रों के मन से परीक्षा विषयक भय और तनाव भी दूर होगा। इस क्रम में शिक्षक और छात्र के बीच जो संवाद और आत्मीयता के संबंध विकसित होंगे, उनसे छात्रों की उपसिथति में तो वृद्धि होगी ही साथ ही साथ बीच में विधालय छोड़ जाने वाले ;कतवचवनजद्ध छात्रों की संख्या में भी गिरावट आयेगी।


उपयर्ुक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि वर्तमान विधालयी शिक्षणमूल्यांकन व्यवस्था में व्यापक व्यवस्थागत सुधारों की जरूरत है। मूल्यांकन की प्रकि्रया कक्षाओं में चल रही सीखने-सिखाने की ही एक प्रक्रिया है एवं मूल्यांकन के वही तरीके अच्छे होते हैं जो बच्चों के सीखने की गति और सीखने के तरीकों के अनुरूप होते हैं।