वर्तमान समय में
प्रदेश के विधालयों में पारम्परिक मूल्यांकन की जो प्रणाली लागू है, उसके अन्तर्गत वार्षिक और अद्र्धवार्षिक परीक्षा के अतिरिक्त सत्र के मध्य में
भी ली जाने वाली दो परीक्षाओं- कुल मिलाकर चार लिखित परीक्षाओं के माध्यम से मूल्यांकन
का प्रावधान है। वर्तमान मूल्यांकन प्रकि्रया पूरी तरह से औपचारिक ताने-बाने में
गुँथी हुअी है। निशिचत अवधि के अंतराल पर मौखिकलिखित परीक्षा के दिन तय किये जाते
हैं।
आर.टी.र्इ.-2009 और एन.सी.एफ.-2005 में यह बार-बार कहा गया है कि बच्चे के अनुभव
को महत्व मिलना चाहिए एवं उसकी गरिमा सुनिशिचत की जानी चाहिए, परन्तु यह तब तक पूर्णतया संभव नहीं है जब तक कि प्रचलित मूल्यांकन पद्धति में
परिवर्तन न किया जाय। वर्तमान मूल्यांकन व्यवस्था में किसी समय विशेष पर लिखित
परीक्षा की व्यवस्था है, जबकि छात्र का संवृद्धि एवं विकास सम्पूर्ण
सत्र में विकसित होता है। इस तरह के मूल्यांकन से कुछ बच्चों को असुरक्षा, तनाव, चिंता और अपमान जैसी सिथतियों का सामना करना
पड़ता है। सावधिक परीक्षाओं से यह तो पता चलता है कि बच्चे कितना जानते हैं, पर यह नहीं पता चलता कि जो नहीं जानते उनके न जानने के क्या कारण हैं। इस तरह
का मूल्यांकन पाठय पुस्तकों में पढ़ार्इ गर्इ विषयवस्तु और रटंत प्रणाली द्वारा
प्राप्त की गर्इ जानकारीज्ञान का मूल्यांकन करने तक ही सीमित है।
अधिकांशत: यह
बच्चों में तुलना करने जैसे भाव रखता है और अवांछनीय प्रतिस्पर्धा को जन्म देता है।
वर्तमान व्यवस्था में केवल बच्चे की अकादमिक प्रगति का मूल्यांकन होता है, जबकि बच्चे के सर्वांगीण विकास में अकादमिक प्रगति के साथ-साथ उसकी
अभिवृतितयों, अभिरुचियों, जीवन-कौशलों, मूल्यों तथा मनोवृतितयों में होने वाले परिवर्तनों का भी समान महत्व होता है।
इस प्रकार की
सिथतियां कुछ महत्वपूर्ण सवालों की तरफ हमारा ध्यान खींचती हैं जैसे- हम किस चीज
का मूल्यांकन कर रहे हैं? क्या टेस्टपरीक्षाओं के अतिरिक्त बच्चों का
मूल्यांकन करने की कुछ और विधियाँ भी हो सकती हैं? क्या अंकों और ग्रेड के
रूप में रिपोर्ट करना पर्याप्त है?
मूल्यांकन संबंधी सूचनाएं
किस तरह मदद करती हैं? हम अपने काम को कठिन बनाए बिना भिन्न-भिन्न
पृष्ठभूमि से आये, और विशेष आवश्यकताओंं वाले बच्चों के सीखने के
बारे में सूचनाएं किस प्रकार से इकटठी कर सकते हैं?
अब यह सर्वमान्य
तथ्य है कि प्रत्येक बच्चे की प्रकृति एवं सीखने की गति में भिन्नता होती है तथा
वे अलग-अलग विधियों से सीखते हैं। हर विषयवस्तु को सीखने-सिखाने की विधियाें में
भिन्नता होने के कारण प्रत्येक बच्चे की प्रस्तुति एवं अभिव्यकित भी पृथक एवं
विशिष्ट होती है। अत: यह आवश्यक है कि बच्चों का मूल्यांकन कागज-कलम परीक्षा के
अतिरिक्त अन्य विधाओं द्वारा भी किया जाये। अन्य विधाओं के प्रयोग से बच्चों की
स्मृति क्षमता के स्थान पर अन्य उच्चतर क्षमताओं यथा-अभिव्यकित, विश्लेषण, समस्या का समाधान एवं अनुप्रयोग आदि दक्षताओं
का विकास संभव होगा। चूंकि प्रत्येक बच्चे की प्रकृति विशिष्ट है और शिक्षण
पद्धतियाँ भी भिन्न होती हैं, अत: एक समान मूल्यांकन पद्धति उपयुक्त नहीं हो
सकती है।
इन तथ्यों को
ध्यान में रखकर नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 में बच्चों के सीखने और उसे उपयोग करने की योग्यताओं का सतत एवं व्यापक
मूल्यांकन करने का प्राविधान किया गया।
नि:शुल्क और
अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 की धारा 29 की उपधारा (2) के अनुसार मूल्यांकन प्रकि्रया में निम्नलिखित
बिन्दुओं का ध्यान रखा जाना आवश्यक है:-
(ख) - बच्चों का सर्वांगीण विकास हो।
(घ) - शारीरिक और मानसिक योग्यताओं का पूर्णतम
मात्रा तक विकास हो।
(ज) - बच्चों के सीखने की क्षमता, ज्ञान और उसके अनुप्रयोग की क्षमता का व्यापक और सतत मूल्यांकन हो।
बच्चों के
मूल्यांकन की यह सतत एवं व्यापक प्रकि्रया कोर्इ पृथक गतिविधि न होकर सीखने-सिखाने
की प्रकि्रया का अभिन्न, सतत और सारगर्भित अंग होगी। बच्चे की प्रगति के
लिए आवश्यक है कि मूल्यांकन की प्रकि्रया बाल केनिद्रत हो, कक्षा में पायी जाने वाली विविधता को समझने वाली हो, आवश्यकता के अनुसार लचीली हो तथा हर बच्चे की आयु, सीखने की गति, शैली और स्तर के अनुसार चलने वाली हो।
यहाँ सतत एवं
व्यापक मूल्यांकन का अर्थ यह कदापि नहीं है कि बच्चों की वार्षिक, अद्र्धवार्षिक और सत्र परीक्षाओं के अतिरिक्त मासिक, पाक्षिक या साप्ताहिक परीक्षाएं ली जाये। बच्चे के विकास का सतत मूल्यांकन एक
सामयिक घटना (सत्र परीक्षा या वार्षिक परीक्षा) नहीं होती वरन यह शैक्षणिक सत्र की
समूची अवधि में लगातार चलती है। दूसरी ओर व्यापक का आशय अकादमिक प्रगति के साथ-साथ
बच्चे के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक विकास की भी जानकारी
प्राप्त करना है। शिक्षा का उददेश्य बच्चों में पाठयक्रमीय दक्षताओं और कौशलों का विकास करना मात्र न होकर
छात्रों का सर्वांगीण विकास करना है। मूल्यांकन में सततता के साथ-साथ व्यापकता का
तत्व समाहित किये बिना बच्चों के सर्वांगीण विकास के लक्ष्य की प्रापित सम्भव नहीं
है। इसके लिए आवश्यक है कि बच्चों के शारीरिक विकास, नियमित उपसिथति, खेलों तथा सांस्कृतिक गतिविधियों में सहभागिता, नेतृत्व क्षमता, सृजनात्मकता आदि व्यकितगत एवं सामाजिक गुणों के क्रमिक विकास का सतत मूल्यांकन
किया जाता रहे।
''सतत एवं व्यापक मूल्यांकन प्रकि्रया के द्वारा शिक्षण-अधिगम
के समय ही शिक्षक को छात्रों के सीखने की प्रगति और कठिनार्इयों के बारे में
निरन्तर जानकारी मिलती रहेगी। इस प्रकार की व्यवस्था में एक दीर्घ अन्तराल के बाद
चलाए जाने वाले उपचारात्मक शिक्षण की आवश्यकता भी समाप्त हो जायेगी, क्योंकि छात्र की कठिनार्इ का समय रहते निदान और उपचार हो सकेगा तथा यथासमय ही
कठिनाइयों का निवारण होने से छात्रों में आत्मविश्वास जाग्रत होगा, सीखने की प्रक्रिया सुगम होगी और छात्रों के मन से परीक्षा विषयक भय और तनाव
भी दूर होगा। इस क्रम में शिक्षक और छात्र के बीच जो संवाद और आत्मीयता के संबंध
विकसित होंगे, उनसे छात्रों की उपसिथति में तो वृद्धि होगी ही
साथ ही साथ बीच में विधालय छोड़ जाने वाले ;कतवचवनजद्ध छात्रों की
संख्या में भी गिरावट आयेगी।
उपयर्ुक्त चर्चा
से यह स्पष्ट है कि वर्तमान विधालयी शिक्षणमूल्यांकन व्यवस्था में व्यापक
व्यवस्थागत सुधारों की जरूरत है। मूल्यांकन की प्रकि्रया कक्षाओं में चल रही
सीखने-सिखाने की ही एक प्रक्रिया है एवं मूल्यांकन के वही तरीके अच्छे होते हैं जो
बच्चों के सीखने की गति और सीखने के तरीकों के अनुरूप होते हैं।
Very true...
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