आमतौर पर ऐसा सोचा जाता है कि बच्चे कोरी स्लेट होते हैं, जिन्हें उन सूचनाओं और ज्ञान से भरना है जो
शिक्षक के ही पास हैं। किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता है। जब बच्चे पहली बार
कक्षा में प्रवेश करते हैं, तब उनके पास बहुत
से अनुभव होते हैं। प्रत्येक बच्चे में सीखने की क्षमता अंतर्निहित होती है तथा
अपने अनुभवों से वह अपने ज्ञान का खुद सृजन करता है। अत: बच्चे पहले से जो भी
जानते और समझते हैं, उसके आधार पर ही
आगे कुछ सिखाने की योजना बननी चाहिए। विधालय के अनुभव तथा बच्चे की बाहर की दुनिया
के अनुभव को कल्पनापूर्ण ढ़ंग से जोड़कर हम विधालयी वातावरण के अजनबीपन को कुछ कम
कर सकते हैं। स्कूल के पास बच्चे को देने के लिए नए और रुचिकर अनुभव हो सकते हैं
लेकिन ऐसा कदापि प्रतीत नहीं होना चाहिए कि वे बच्चे के अनुभवों की अनदेखी कर रहा
है। सीखना एक सतत प्रकि्रया है इसलिए सीखना सिर्फ विधालय में ही नहीं होता। अत:
कक्षा में सीखने की प्रकि्रया को घर में जो कुछ भी हो रहा है, उससे जोड़ा जाना जरूरी है।
शिक्षण सामान्य बातचीत के माध्यम से होना चाहिए न कि एकतरफा भाषण की रीति से।
यह बातचीत का ही तरीका हो सकता है, जिससे बच्चे का
आत्मविश्वास और उसकी स्व-चेतना बढ़ेगी तथा वह ज्यादा सरलता से अपने तथा शिक्षक के
द्वारा दिए जा रहे अनुभवों के बीच रिश्ता बनाएगा। सीखना समग्रता में ही संभव है न
कि न्यूनतम अधिगम स्तर आधारित पाठयक्रम और मूल्यांकन प्रणाली में, जहाँ ज्ञान को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ा या
विषयों में बाँटा जाता है। इसलिए सीखने के लिए समेकित विधि ही बेहतर है।
हर बच्चे की अपनी पसंद, नापसंद, रुचियां, परिवेश, कौशल, अनुभव और व्यवहार के तरीके होते हैं। इस प्रकार
हर बच्चा अपने आप में अद्वितीय है। चूंकि प्रत्येक बच्चा अपने आप में एक अद्वितीय
व्यकित तथा किसी भी सिथति के प्रति अपने ही ढंग से प्रतिकि्रया करता है। इसलिए
बच्चों के लिए सीखने-सिखाने की योजना बनाते समय यह बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है
कि हम उनमें पार्इ जाने वाली भिन्नताओं को पहचान सकें और इस सच्चार्इ को भी
स्वीकार करें कि वे सीखने के दौरान भिन्न-भिन्न तरीके से प्रतिकि्रया करते और
समझते हैं। इसलिए आकलन ऐसा हो जो यह सुनिशिचत कर सके कि यह विविधता अपने पूर्ण रूप
में निखरे।
आकलन केवल याद करने की क्षमता का नहीं होना चाहिए।
मूल्यांकन में इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि उसे जो पढ़ाया गया है, उसका
अपने जीवनानुभव तथा दूसरी अन्य चीजों से संबंध जोड़ने की योग्यता, सीखी
गयी चीजों के बारे में नए और सटीक प्रश्न बनाने की क्षमता, अपने
पाठों में सही और गलत के विचार से विचलन को देख पाने की क्षमता विकसित हो।
मूल्यांकन के द्वारा विधालय उसमें इस प्रकार की क्षमताएं विकसित करने का प्रयत्न
कर सकता है। तात्पर्य यह है कि सभी बच्चे दी जा रही सूचनाओं के अर्थ अपने पूर्व
अनुभवों और अधिगम के आधार पर अपनी ही तरह से बना लेते हैं। यही प्रकि्रया बच्चे को
अपनी समझ बनाने और निष्कर्ष निकालने के लिए प्रेरित करती है। ज्ञान तक पहुँचने, उसे
प्राप्त करने की हर बच्चे की यह प्रकि्रया लगातार चलती रहती है।
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